उनकी हंसी में खो गयी
सदा मेरी आवाज़ की
हमें नही आती थी
बाजीगरी अल्फाज़ की
नाज़ था बेशक हमें
अपने किताबी इल्म पे
पढ़ न पाये शौखियाँ
उनके मिजाज़ की
एक क़तरा खूं न आया
तीर दिल के आरपार
क्या बताएं बात उनके
क़त्ल के अंदाज़ की
पर नही पर हौसला
बुलंद आसमान सा
रंग लाएगी हमारी
कौशिशें परवाज़ की
Saturday, November 21, 2009
zakham
अपनी आंखों में सीने के
ज़ख्म छुपाये बैठे हैं
हम ने कभी इक सच बोला था
होठ जलाए बैठे हैं........
लम्हा लम्हा किरचे किरचे
दिल हुआ है चक मगर
बुझी राख में भी शोलों की
आग दबाये बैठे हैं.........
सूनी आँखें सूने अरमां
सूनी यादें सूना दिल
वो आयें तो रौनक हो
उम्मीद लगाये बैठे हैं ........
ज़ख्म छुपाये बैठे हैं
हम ने कभी इक सच बोला था
होठ जलाए बैठे हैं........
लम्हा लम्हा किरचे किरचे
दिल हुआ है चक मगर
बुझी राख में भी शोलों की
आग दबाये बैठे हैं.........
सूनी आँखें सूने अरमां
सूनी यादें सूना दिल
वो आयें तो रौनक हो
उम्मीद लगाये बैठे हैं ........
qatl
मेरा क़त्ल जो उसने किया
उस हुस्न की अदा सही
हम कह कह के थक चुके
कोई न सुने तो न सही
मुझे दर्द जो उसने दिया
मेरी जान में शरीक है
ये दर्द भी अजीज़ है
ये दर्द ला दावा सही
अब मुन्सिफों से क्या कहें
अब इस्तगासे किस को दें
मेरे साथ जो गुज़र चुकी
मेरे इश्क की सज़ा sahee
उस हुस्न की अदा सही
हम कह कह के थक चुके
कोई न सुने तो न सही
मुझे दर्द जो उसने दिया
मेरी जान में शरीक है
ये दर्द भी अजीज़ है
ये दर्द ला दावा सही
अब मुन्सिफों से क्या कहें
अब इस्तगासे किस को दें
मेरे साथ जो गुज़र चुकी
मेरे इश्क की सज़ा sahee
दो ghadi
कभी दो घड़ी तू आ के मिल
मुझे दो घड़ी तू प्यार दे
मेरे दिल में हैं बेचैनियाँ
मेरे दिल को तू करार दे..........
हवा की मुझ से दुश्मनी
मेरी लौ बुझाने को ठानी
आ बन मेरा फानूस अब
न और इंतज़ार दे...........
ये तेज़ लहरें दर्द की
भंवर ये कशमकश के हैं
मैं अपनी रौ में बह रहा
मुझे पार तू उतार दे...........
रस्ते में सब लुटा के भी
मंजिल की जद में आ गया
अब मुझ को तू रास्ता बता
मेरी जिंदगी संवार दे.............
बस जिंदगी के चार दिन
बस चार शामें गुनगुनी
होकर मेरे शरीक मेरे
साथ तू गुजार दे.........
में लड़खड़ा के गिर गया
मैं चल सकूँ तौफीक दे
साकी तेरी आंखों का भी
मुझे थोड़ा सा खुमार दे.........
इलज़ाम की कीलें लिए
आया हूँ तेरे दर पे मैं
आ बन मेरा मुंसिफ मुझे
सूली से उतार दे .......
कभी दो घड़ी .........
मुझे दो घड़ी तू प्यार दे
मेरे दिल में हैं बेचैनियाँ
मेरे दिल को तू करार दे..........
हवा की मुझ से दुश्मनी
मेरी लौ बुझाने को ठानी
आ बन मेरा फानूस अब
न और इंतज़ार दे...........
ये तेज़ लहरें दर्द की
भंवर ये कशमकश के हैं
मैं अपनी रौ में बह रहा
मुझे पार तू उतार दे...........
रस्ते में सब लुटा के भी
मंजिल की जद में आ गया
अब मुझ को तू रास्ता बता
मेरी जिंदगी संवार दे.............
बस जिंदगी के चार दिन
बस चार शामें गुनगुनी
होकर मेरे शरीक मेरे
साथ तू गुजार दे.........
में लड़खड़ा के गिर गया
मैं चल सकूँ तौफीक दे
साकी तेरी आंखों का भी
मुझे थोड़ा सा खुमार दे.........
इलज़ाम की कीलें लिए
आया हूँ तेरे दर पे मैं
आ बन मेरा मुंसिफ मुझे
सूली से उतार दे .......
कभी दो घड़ी .........
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